Sunday, October 30, 2011

अल्पसंख्यक

भारत जैसे विशालकाय और विविधताओं से भरे देश के सम्यक विकास के लिए धर्मनिरपेक्षता को एक मूलभूत सिद्धांत के तौर पर देखा जाना चाहिए….हाँ इस बात पर बहस लाजिमी है कि उसकी व्याख्या कैसे की जाये …बदलते हुए समय के साथ परिभाषाएं बदलती हैं …..युग धर्म बदलते हैं और सत्ता के समीकरण भी …पर कुछ बातें हैं जो गहन मानवीय मूल्यों को उभारती हैं …..धर्मनिरपेक्षता को भी उसी स्तर पर रखना चाहिए …..व्यक्ति किसी पंथ का हो, किसी भी धर्म का हो उसे सत्ता के द्वारा जीने के समान अवसर मुहैय्या करवाए जाने चाहिए ….हरेक मनुष्य को जीने का हक है और यह राज्य का कर्त्तव्य बनता है कि वह इसकी सुरक्षा करे…जिस तरीके की ऐतिहासिक और समकालीन बहस समाज में खुलती जाती है उससे ही धर्मनिरपेक्षता का निर्धारण किया जाना चाहिए….अब तक तो देश ने यह देखा ही है कि धर्मनिरपेक्षता के कितने ठेकेदार पनपे हैं और किनकी चिंताएं कितनी गहरी थी……

मूलतः अल्पसंख्यक की श्रेणी का वर्गीकरण एक सापेक्ष व्यवस्था है …क्योंकि कोई भी वर्ग या समूह देश, काल और परिस्थिति के अनुसार कभी भी अल्पसंख्यक बन सकता है …….अल्पसंख्यक बनने के बाद उसकी चिंताएं लगभग समान ही होती हैं ….अपनी पहचान बनाये रखने का संघर्ष ही एक सार्वजानिक चिंता होती है …अक्सर उनके सांस्कृतिक चिन्ह बहुसंख्यकों के चिन्हों से अलग होते हैं ….उनके प्रतीक अलग होते हैं क्योंकि वो आयातित होते हैं ….अपने मूल धार्मिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक प्रतीकों की नक़ल होते हैं या फिर उनसे प्रभावित होते हैं…..जो लोक संस्कृति के प्रतीकों से अलग होते हैं …..यहीं पर एक संघर्ष उत्पन्न होता है ….जो मानसिकता का अंग ही बन जाता है …एक बीमार सी परंपरा बन जाती है जिसे पीढियां ढोती हैं …..यह एक मानसिक घाव है ..जिसे राजनीति को धोना चाहिए ……बहुसंख्यक वर्ग का एक अपना गुप्त दबाव होता है जो समाज के राजनीतिक अचेतन को प्रभावित करता है…..सत्ता पर उसका वर्चस्व नहीं होने पर भी वह अदृश्य रूप में सांस्कृतिक बदलाव लाता है……समय के साथ-साथ यही चीजें पकती हैं, संघर्षरत परम्पराएँ जिन्दा रहने की जीतोड़ कोशिश करती हैं ….और राजनीतिक माध्यमों का सहारा लेकर अपना परिवर्धन करना चाहती हैं ….अल्पसंख्यकों का सत्ता संघर्ष मूलतः इन्हीं परम्पराओं से सिंचित होता है ….

समकालीन समय में सांस्कृतिक संघर्ष और भी मुखर होते जायेंगे …और सत्ता के दुरुपयोग का संयोग बहुत बढ़ जायेगा ….क्योंकि समाज तो बहुसंख्यकों के अदृश्य राजनीतिक दबाव पर भी चल सकता है …..एक गहरी मानसिक अराजकता सत्ता और समाज दोनों को ग्रस सकती है …..और काफी भयानक परिणाम मानवता को भुगतने पड़ सकते हैं ….इस तरह कि चिंताओं पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए ….और ऐसे नियम बनाये जाने चाहिए ताकि अल्पसंख्यकों के हक़ किसी भी कीमत सुरक्षित रखे जा सकें …..दंगा मुक्त देश, जनता के लिए वरदान और इतिहास के लिए स्वर्ण काल सिद्ध होगा ….

अयोध्या और गोधरा दोनों दो धुरें हैं ….एक तरफ प्राचीन मिथकीय राम हैं तो दूसरी तरफ ताजा ऐतिहासिक औरंगजेब ……… और फिर गोधरा के बाद की घटना एक कुंठित इतिहास बोध के आक्रोश का भी परिणाम हो सकती है …..जिस जमीन को लुटेरों ने लूटा और वहां के लोग मूक दर्शक बने रहे ….जहाँ का राजा खिड़की से कूद कर भाग गया और फिर जनता रौंद दी गयी …..इसी ऐतिहासिक हार की खीज, सदियों बाद कायरतापूर्ण बदले की करवाई में गोधरा के बाद के दंगों में परिलक्षित हुई ….यह एक राजनीतिक प्रयोग था ….इसके बाद समाज में एक गहरी दरार पड़ चुकी है ….सहमे हुए अल्पसंख्यक और उनके थोथे पैरवीकार भोथरे राजनीतिक समझौते के पक्ष में हैं …..अब जबकि पूरे विश्व में इस्लाम पर बहस चल रही है और कई ऐतिहासिक बदलाव लाये जा रहे हैं, भारत को एक नयी मिसाल पेश करनी चाहिए ….भारतीय मुसलमान कैसा हो यह बड़ी सघन समस्या है ….क्या वह अरब, यूरोप और अफ्रीका के मुसलमानों से अलग होगा ….क्या वह पाकिस्तान के मुसलमानों से भिन्न होगा …..क्या उसकी सोच, उसकी चिंताएं एक स्वर्णिम युग के सुखी मानवों की सी होंगी…क्या आगरे के ताजमहल सरीखा कोई और भी नया अजूबा वो रच पाएंगे ….क्या ग़ालिब जैसे महाकवि फिर पैदा होंगे ….क्या उस्ताद फ़ैयाज खान सरीखे संगीतकार फिर नए रागिनियों की रचना करेंगे …..क्या मुसलमानों का स्वर्ण युग आजाद हिन्दुस्तान में कभी नहीं आएगा ……क्या अब आधुनिक नवाब और रईसजादे मुसलमानों में नहीं पैदा होंगे …….क्या भविष्य में मस्जिदों से अजान देने पर भी पाबंदियां लगा दी जाएँगी ……क्या बुरकों का प्रयोग भारत में भी बंद करा दिया जायेगा….. क्या सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने के लिए धर्मान्धता उनमें और भी ज्यादा बढ़ेगी …..इस सरीखे बहुतेरे सवाल हैं जो हरेक नियमकार को पूछने चाहिए……

हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अभी बहुत सारी दबी हुई बहसें हैं जिन पर खुल कर आमने सामने बहस होनी चाहिए ….कई भ्रांतियां हैं जिनसे आम जनता गलत फहमी का शिकार हो कर राजनीतिक मोहरें बन सकती है …..इन सारी फैली हुई अमरबेल की शिराओं को समूल नष्ट किया जाना चाहिए …..आज जबकि तकनीक समाज निर्माण में अद्वितीय योगदान दे रही है ….जनता के बीच की दूरियां आसानी से ख़त्म भी की जा सकती हैं …जनता खुद ही बहुत जागरूक है और संभवतः भविष्य में कोई नयी पहल करे ……