मैं हूँ मुश्ताक ए जफा मुझ पे जफा और सही
हुस्न में हूर से बढ़ कर नहीं होने के कमी
तेरे कूचे का है मायिल दिले मुस्तअर मेरा
काबा एक और सही किबलानुमा और सही
मुझको वो दो कि जिसे खा के ना पानी माँगूँ
ज़हर कुछ और सही आबे बक़ा और सही
गैर की मअर्ग का ग़म किस लिए ऐ ग़ैरत ए माह
हैं हवस पेशा बहुत वो ना हुआ और सही
तुम हो बुत फिर तुम्हें पिन्दार ए खुदाई क्यूँ है
तुम खुदाबंद ही कहलाओ खुदा और सही
कोई दुनिया में मगर बाग़ नहीं वाइज़
खुल्द बे बाग़ है खैर आब ओ हवा और सही
क्यूँ ना फिरदौश में दोज़ख को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़ज़ा और सही
मुझसे ग़ालिब ये इलाही ने ग़ज़ल लिखवाई
एक बेदाद गर ए रंज ए फ़ज़ा और सही