Tuesday, May 15, 2012

महाकवि ग़ालिब

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़ ए नज़र मिले
हूराँ ए ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले 


अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद ए क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले 


साक़ी गरी की शर्म करो आज वर्ना  हम
हर शब पिया ही करते हैं मय जिस क़दर मिले 


तुम को भी हम दिखाये के मजनूँ ने क्या किया

फ़ुर्सत कशाकश ए ग़म ए पिन्हाँ से गर मिले 

तुमसे तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
मेरा सलाम कहियो अगर नामाबर मिले 

लाज़िम नहीं के ख़िज्र की हम पैरवी करें
माना के एक बुज़ुर्ग हमें हम सफ़र मिले 


साकिनान ए कूचा ए दिलदार देखना
तुम को कहीं जो ग़ालिब ए आशुफ़्ता सर मिले

Tuesday, April 3, 2012

कश्मीर

राष्ट्रवाद की संकल्पना खुद अपने आप से कभी-कभी बेहद तीखे सवाल पूछती है...जमीन पर रहने वाली जनता के बीच अदृश्य मानसिक सीमायें कैसे खींची जाये ....यह प्रश्न युगों के अनंतर राजनीति के मानवीय सरोकारों पर उठते द्वंद्वों को भी रूपायित करता है .....अगर सत्ता राज्य निर्धारित करती है तो फिर उसे जमीन पर सीमायें भी निर्धारित करनी पड़ेंगी ....यह एक राजनीतिक सच है जो सार्वभौमिक है और व्यावहारिक भी ...क्योंकि समाज के समस्त अंतर्द्वंदों का साझा निवारण ही राज्य का कार्यकारी रूप होता है .....राज्य और राजनीति की अवधारणा में द्वंद्व शाश्वत रूप से फंसे हुए हैं ....समाज को एक सधी हुई भौगोलिक परिधि में बांधने के लिए, ताकि अराजकता से बचा जा सके कभी कभी कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं .....यहाँ पर ही मानवीय मूल्यों के औचित्य पर बात होती है ....तो क्या सीमा रेखा खींचने के लिए हजारों मनुष्यों की बलि जरूरी है?.......क्या उनके सांस्कृतिक सच, उनका दबा हुआ इतिहास सत्ता के लिए कोई मायने नहीं रखता? .....क्या उनके निजी सामाजिक अनुष्ठान और प्रथाएं, उनका सहमा हुआ गर्व-बोध.... सब कुछ रौंद कर ही राज्य अपना झूठा प्रभुत्व दिखलाता है?.....इस सरीखे कई प्रश्न गहन सामाजिक चिंतन चाहते हैं ..और आधुनिक राज्य की संकल्पना एवं उसकी समकालीन कार्य प्रणाली पर भी सवालिया निशान लगाते हैं ......

भारत मूलतः एक पची हुई सभ्यता है .....इसका वितान इतना विस्तृत और उदार है कि यहाँ सब लोगों के लिए जगह है ...घुलने मिलने का खुला आकाश है .....मानवता के शाश्वत मूल्य ही यहाँ महान माने गए .....जहाँ कवि ने घोषणा की ..."सबाई उपरे मानुष" .......अब अगर यह बात राजनीतिक अलगाव वादियों को नहीं समझ में आती है तब सत्ता के अन्य हथकंडों का प्रयोग निहायत एक राजनीतिक लाचारी हो जाती है .....जब इस देश में अलग अलग भाषाओँ और सांस्कृतिक परिवेश में मुसलमान भाई विकास कर रहे हैं और फल फूल रहे हैं तो फिर कश्मीर में ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी है ....अरुणाचल और अंदमान जैसे प्रदेशों में भी जब जनता देश से अपने को एकात्म करती है तो फिर कश्मीर को विशेषता किस सिद्धांत पर दिए जाएँ .....मूलतः घाटी का नेतृत्व पूरी तरीके से दिग्भ्रमित हो चुका है.....कश्मीर अगर अलग भी हो जाये तो वो कौन सा तीर मार लेंगे .....पाकिस्तान, भारत और चीन जैसे तीन बड़े राष्ट्रों के बीच एक कमजोर और भीख मांगता हुआ .... एक अन्तस्थ राष्ट्र  ......उससे ज्यादा उन्हें कश्मीर की आज़ादी के बाद कुछ भी नहीं मिलेगा ......फिर भी बेतुके सवाल उठाकर भारत और पाकिस्तान दोनों से दलाली खाना एक ओछी राजनीतिक हरकत है और घाटी में बसती आयी हजारों सालों की साझी सांस्कृतिक विरासत को जमींदोज़ करने व गुमराह करने का एक भोंड़ा प्रयास है......देश के राजनीतिकों को इस विषय में गहन चिंतन करना चाहिए कि कैसे कश्मीरी जनता का दिल जीता जाए ....कैसे उन्हें थोथे राजनीतिक दलालों से मुक्त किया जाए ...और उन्हें यह बतलाया जाये कि हिंदुस्तान उनका भी उतना ही है जितना कि बाकी प्रान्त के लोगों का ......कश्मीर समस्या को अंतर्राष्ट्रीय समस्या नहीं समझना चाहिए ...यह तो भाइयों के बीच की अनबन और मनमुटाव सरीखी बात से ज्यादा कुछ भी नहीं है .....पुराने नेतृत्व ने इसे एक अंतर्राष्ट्रीय मंच दे कर, अमेरिका जैसे लोलुप राष्ट्रों को अंदरूनी मामलों में दखल देने का न्योता दिया था और अब तक हम उस गलती का परिणाम भुगत रहे हैं ....कश्मीर खुद ही सम्पूर्ण भारतीयता का एक बिम्ब है, वादियों में बसा एक पूर्णोपमा अलंकार है ....जिस पर यह देश कन्याकुमारी से, कामरूप तक एक स्वर में बोलता है .... जब इतनी बड़ी आबादी यह खुला सच समझती है तब फिर कुछ कांच के बने बुद्धिजीवी ज्यादा काबिल क्यों बनने लगते हैं ... 

Sunday, January 1, 2012

महाकवि ग़ालिब


मैं हूँ मुश्ताक ए जफा मुझ पे जफा और सही
तुम हो बेदाद से खुश इस से सिवा और सही

हुस्न में हूर से बढ़ कर नहीं होने के कमी
आपका शेवा ओ अंदाज ओ अदा और सही

तेरे कूचे का है मायिल दिले मुस्तअर  मेरा
काबा एक और सही किबलानुमा और सही

मुझको वो दो कि जिसे खा के ना पानी माँगूँ
ज़हर कुछ और सही आबे बक़ा और सही

गैर की मअर्ग का ग़म किस लिए ऐ ग़ैरत ए माह
हैं हवस पेशा बहुत वो ना हुआ और सही

तुम हो बुत फिर तुम्हें पिन्दार ए खुदाई क्यूँ है
तुम खुदाबंद ही कहलाओ खुदा और सही

कोई दुनिया में मगर बाग़ नहीं वाइज़
खुल्द बे बाग़ है खैर आब ओ हवा और सही

क्यूँ ना फिरदौश में दोज़ख को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़ज़ा और सही

मुझसे ग़ालिब ये इलाही ने ग़ज़ल लिखवाई
एक बेदाद गर ए रंज ए फ़ज़ा और सही