यह एक ऐतिहासिक सच है कि अल्पसंख्यक कभी भी बहुत दिनों तक सत्ता पर काबिज नहीं रह सकते हैं ....अगर इस समस्या को इतिवृत्त के दृष्टिकोण से परखा जाये तो हम पाएंगे कि इस्लाम को भी अपने सामाजिक ढांचें में कई परिवर्तन लाने पड़े हैं तब जाकर वह पूरे हिंदुस्तान में अपना असर बना पाया....अगर अंग्रेज भारत नहीं आते तब मुग़ल बादशाह दिल्ली में अपने साम्राज्य को बचा पाते या नहीं यह पूछ कर हम इस समस्या की दूसरी विमा तक जाते हैं .......अगर बहुसंख्यक सत्तासीन नहीं हों तो एक अनदेखी राजनीतिक अस्थिरता सत्ता को ग्रस लेती है.......जिन्ना साहब एक दूरदर्शी नेतृत्व के द्योतक थे जो राजनीति के मारक कुचक्रों को देख लेते थे .....वो इस बात की कल्पना कर गए थे कि आजादी के बाद हिन्दुओं के समुद्र में मुसलमानों के टापुओं का कैसा अपरदन संभव है ...इसी सोच के कारण वो एक अलग दुनिया बसाना चाहते थे ...हालाँकि राष्ट्र की एक बहुआयामी कल्पना से वो काफी पीछे छूट गए थे ...चूँकि उनके पास समय कम था और प्रश्न सघन इसलिए वो जल्दीबाजी कर गए .....दूसरी बात यह कि जिन्ना खुद भी पश्चिम के सांस्कृतिक संस्कारों से बाहर नहीं निकल पाए थे अतः केवल पढ़े-लिखे और जमींदार तबकों के लोग ही पाकिस्तान की नयी योजना से प्रभावित हो पाए .....जो अकबर की आत्मा को जानते थे... जो किसी और मिट्टी के बने थे, वो तब भी यहीं रूक गए और अब भी यहीं रहते हैं ....पर राजनीति हो चुकी थी ....खून बह चुका चुका था ...और सत्ता इतिहास लोलुप हो मूक थी .....आजाद हिंदुस्तान में गाँवों तक यह मिथक जिन्दा हैं कि नेहरु जी अगर मान जाते तो जिन्ना पाकिस्तान की जिद छोड़ देते ......खैर हिन्दुओं में तो यह बात भी होती है कि मुसलमानों ने इस बात पर धोखा दिया है ....वो जब तक शासक बन कर रहे तब तक हिंदुस्तान की हिमायत करते रहे पर जब मुगलों के बाद हिन्दू राजनीतिक रूप से मजबूत हुए तब फिर अलग से पाकिस्तान की मांग उठने लगी ....यहाँ पर एक मानसिक पेंच है जो जनता में कहीं गहरे फंसा है ....नेहरु जी ने अपनी सीमाओं तक पूरी कोशिश की जिससे कि धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक रूप से स्वीकृत हो जाये ...पर बात कुछ और थी .....कांग्रेस अब आजादी के पहले की कांग्रेस नहीं थी ...उसके आदर्श टूट चुके थे वह अवसरवादी हो चुकी थी ....सत्ता की मलाई ने उन्हें घोर राजनीतिक और सांस्कृतिक आलस्य में रखा ....और परिणामतः अन्य राजनीतिक धाराएँ समाज में प्रतिनिधित्व के लिए आगे आ गयीं .....राजनीतिक चिंतन में भोथरी कांग्रेस अपने प्रतिद्वंदियों को नहीं रोक पाई, और तो और कई भूलें भी कर गयीं .......दबी हुई राजनीतिक बहसें कालांतर में काफी मुखरित हुईं और तीव्रता के साथ अपना प्रतिनिधित्व दर्शाने लगी ....सामाजिक न्याय और उग्र हिंदुत्व यह दो बड़ी राजनीतिक धाराएँ आजादी के बाद मुखरित हुई हैं ......विश्वनाथ जी और आडवाणी जी इस नयी राजनीतिक बहस के सूत्रधार बने .....आने वाली राजनीति में भी ये दो धाराएँ प्रतिस्पर्धा करेंगी ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है .....बौद्ध धर्म ने एक बार तो हिन्दू धर्म को चुनौती इसी जमीन पर दी है यह इतिहास गवाह है ......ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच का ऐतिहासिक सत्ता संघर्ष बस अपने रूप बदल कर आया है .....हाँ इस्लाम के आने से यह संघर्ष कुछ अलग ही विन्यास में निकल गया है ....पर यहाँ की सभ्यता पुष्ट्गर्भा है वह सब कुछ पचा कर एक अलग ही संस्कृति रचती है .....पर हमें जल्द ही ऐसे नियामक खोजने होंगे जो हिंसा की अवधारणा को रोक सके और मानवों के सामने जीने के नए आदर्श उद्धृत कर पाए .....
हिन्दुत्व की जो परिभाषा गढ़ी जा रही है वह काफी हद तक बाजारू है ...उसमें पैसा सर चढ़ कर बोलता है .....उसमें सामंती दंभ और ब्राह्मणवादी संस्कार आरोपित किये जा रहे हैं ....फलतः हिन्दुओं के अन्दर ही कई तबके बिखर जाते हैं .....दक्षिणपंथी राजनीति का मूल संकट यह है कि एक तरफ तो वह गुप्तकालीन स्वर्णयुग की नोस्टाल्जिया से ग्रस्त है ....और दूसरी तरफ औपनिवेशिक आधुनिकता बोध की पहचान से अंदरूनी रूप में युद्धरत है ......परन्तु बड़ी बात यह है कि दक्षिणपंथ जनता को एक नयी राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान देने का दावा करता है .....आने वाले विश्व परिदृश्य में जबकि लड़ाई इस्लाम और क्रिस्तान के बीच चल रही है ...नया उग्र हिंदुत्व कहीं न कहीं ईसाईयत का पिछलग्गू ही बन कर संतोष कर रहा है ....यह काफी द्वंद्वात्मक परिस्थिति है .....भारत में अल्पसंख्यक ईसाईयों पर दबाव और देश के बाहर उनकी चाटुकारिता .....दक्षिणपंथ कहीं न कहीं अपने अन्दर से जूझ रहा है ....भारतीय आत्मा की परिभाषा क्या हो और इसे कैसे जीवित रखा जाये यह उसे अभी सीखना बाकि है .....पर कई ऐसी बहसें वो राजनीतिक पटल पर छेड़ चुका है जिसे अन्य राजनीतिक धाराओं को बखूबी समझना होगा .....एक दुरंत बौद्धिक आलस्य बुद्धिजीविकों को बांधे हुए है और जमीनी लड़ाई के कार्यकर्ता मरे जा रहे हैं .... जिन पर राजनीतिकों को गहराई से काम करना होगा ....अगर ऐतिहासिक रूप से देखा जाये तो हजार सालों के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि यह पूरा प्रायद्वीप एक सत्ता के अधीन है और फल फूल रहा है ....राजनीतिक रूप से हिंदुस्तान कभी इतना सुदृढ़, समर्थ और स्वंभू नहीं रहा होगा जितना कि वर्तमान में है ....राजनीतिक धाराओं को यह तय करना होगा कि आने वाली पीढ़ियों को मानवता का कौन सा रूप वो थाती में छोड़ जायेंगे ......